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Sunday, 9 June 2024

साहित्य की धारा में कला की अनंत तरंगें-- प्रमोद शर्मा पुस्तक समीक्षा- मेरे स्पिक मैके दिन लेखक- अशोक जमनानी



 

साहित्य की धारा में कला की अनंत तरंगें-- प्रमोद शर्मा

पुस्तक समीक्षा- मेरे स्पिक मैके दिन लेखक- अशोक जमनानी 


नर्मदा पुरम । देश के जाने-माने साहित्यकार अशोक जमनानी की नवीन कृति ‘मेरे स्पिक मैके दिन‘ साहित्य की धारा में कला की उत्ताल तरंगों की भांति हिलोरें मारती हुई प्रतीत होती हैं। इस कृति में भारतीय कला और संस्कृति जगत के सभी आयामों की बारीकियों, उसके गूढ़ ज्ञान की जितनी गहराई है, उतना ही प्रबल भाषा का प्रवाह भी है। जो पाठकों को अपने में समाहित करते हुए अपने लक्ष्य तक बहाकर लिए जाता है।

 इस कृति की धारा में एक बार उतरने वाला पाठक गायन-वादन और नृत्य का ज्ञान तो सहज ही पा जाता है साथ ही वह कला से इस प्रकार घुला-मिला अनुभव करता है, जैसे कोई बालक अपनी मां के आंचल में अनुभव करता है। संस्मरण के रूप में लिखी गई यह कृति निश्चित ही जहां पाठकों के सांस्कृतिक ज्ञान भंडार को बढ़ाएगी, वहीं इससे कला और संस्कृति के विकास के नवीन द्वार भी उद्घाटित होंगे। इससे पाठकों, विशेषकर युवाओं का कला के प्रति रूझान बढ़ेगा। कला की यह धारा जन-जन के कल्याण और उसके विकास का मार्ग भी प्रशस्त करेगी। 

इस पुस्तक में जहां कला जगत की महान हस्तियों के शुचितापूर्ण आचरण और सिद्धांतवादी व्यक्तित्व का चित्रण है तो अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं, जो कला की श्रेष्ठता से मेल नहीं खाते। लेखक इस पुुस्तक में अपनी स्पिक मैके की यात्रा के आरंभ की बात करते हुए बताता है कि किस प्रकार एक पुलिस अधिकारी द्वारा इससे दूर रहने के लिए उन पर एक प्रकार से दबाव बनाया गया, लेकिन यही वह घटना थी, जिसने लेखक को इस अभियान से जुड़ने का साहस पैदा किया। 

कला जीवन में किस प्रकार समाहित है। इस बात जिक्र लेखक अपनी पुस्तक के तीसरे पन्ने में ही करता है। इसमें एक प्रसंग का वर्णन करते हुए कहता है कि- एक बार कथक नृत्यांगना संजुुक्ता पाणिग्रही प्रदर्शन के लिए होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) आई तो वे कैंसर से पीड़ित थी। इस बात की जानकारी उन्हें उनके निधन के बाद लगी। जब उन्होंने उनके पति से पूछा तो उन्होंने बताया कि वह जानती थी कि उन्हें यह प्राणघातक बीमारी है। फिर भी उन्होंने इतने लंबे-लंबे कार्यक्रम क्यों दिए? तो उनके पति ने उत्तर दिया कि- वह कहती थी कि जब तक नृत्य है तब तक मृत्यु कहां? वाकई यह जज्बा, साहस और समर्पण किसी श्रेष्ठ कलाकार में ही हो सकता है। यह बात उनके निधन से सिद्ध भी हुई। क्योंकि नृत्य से विलग होने के चंद दिनों बाद ही उन्होंने शरीर भी छोड़ दिया। 

कलाकार के समर्पण का एक प्राचीन किस्सा वे पुस्तक के दूसरे पन्ने में आता है। जब राजस्थान दरबार में एक नृत्यांगना के नृत्य और एक राजा की तलवार बाजी का मुकाबला हुआ। पूरी रात दोनों अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे। दोनों ने हार नहीं मानी। जब राजा को लगा वे नर्तकी को परास्त नहीं कर पाएंगे तो उन्होंने अपनी ही तलवार से अपनी गर्दन काट ली। बाद में जब लोगों ने नर्तकी को रोका तो वह तो पहले ही स्वर्ग सिधार गई, केवल घुंघरू ही बज रहे थे। 

कला वास्तव में जीवन का आंतरिक आनंद है, जो सभी को अपनी ओर खींचता है और कोई भी व्यक्ति उसके प्रभाव से अछूता नहीं कर सकता। प्रदेश के दस्यु प्रभावित क्षेत्र चंबल में जब स्पिक मैके कार्यक्रम की बारी आई तो भय स्वभाविक ही था। इस बारे में वहां की कार्यकर्ता नंदिनी का एक वाक्य इस बात की तस्दीक करता है कि डाकू भी इंसान ही हैं और वे कला की महत्ता को जानते हैं। जब अशोक जी ने समस्या की बात की तो उनका उत्तर था कि -‘डाकुओं को इतनी तमीज और समझ तो है कि वे जानते हैं कि तानपूरों पर बंदूक नहीं तानी जाती।‘ यह वाक्य अपने आप में कला की व्यापकता और प्रभाव की कहानी कह देता है। 

कला का अद्भुत ज्ञान

लेखक अशोक जमनानी साहित्य क्षेत्र के प्रख्यात हस्ताक्षर तो हैं ही, लेकिन वे कला का इतना अनूठा, अद्भुत और व्यापक ज्ञान रखते हैं, इस बात की जानकारी उनकी इस कृति को पढ़ने बात पाठकों को होगा। यूं ही हमारा देश में कला की विविधता और व्यापकता के इतने रंग हैं कि उनकी गणना और सबकी विशेषताओं को जानना आसान काम नहीं है। फिर भी लेखक ने इस पुस्तक में कामरूप से कच्छ और कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली कला की सभी शैलियों, विविधताओं को इस प्रकार इस कृति में समाहित किया है, जैसे कोई विशाल सागर सभी नदियों को खुद में समाहित कर लेता है। इतना ही नहीं उन्होंने इस पुस्तक में विदेशी कलाओं को भी स्थान दिया है। ये सभी बातें इस पुस्तक और पठनीय और सरस बनाती हैं। 

वास्तव में यह एक किताब नहीं, बल्कि समूचे भारत देश की कला-संस्कृति का एक बेहद आकर्षक और सुगंधित गुलदस्ता है। कलाकारों की बात करें तो इसमें पं भीमसेन जोशी, पं विश्वमोहन भट्ट, पं रविशंकर, राजन-साजन मिश्र, गुंदेचा बंधु, संजुक्ता पाणिग्रही, छन्नूलाल मिश्र, अब्दुल रसीद, केलू महापात्रा, हबीब तनवीर, भजन सपोरी सहित अनेक नामी-गिरामी संगीत साधक हैं। कलाओं की बात करें तो भरतनाट्यम, कथकली, कुचीपुड़ी, बिहू, कालबेलिया, ओडिसी, लावणी, पंडवानी, कजरी, चैती, ठुमरी, सुफियाना, खयाल सहित देश के तमाम शास्त्रीय संगीत और लोक नृत्यों की छटा इसमें बिखरी पड़ी है। साजों की बात करें तो तबला, सारंगी, मोहन वीणा, रूद्रवीणा, पखावज, संतूर, बांसुरी, तानपूरों सहित अन्य वाद्यों की रागों की तरंगें हरेक पन्ने से निकलती सी सुनाई देती हैं। 

कला के संकट और समाधान 

पुस्तक में वर्तमान में समय में कला और कलाकारों पर मंडराते मौजूदा संकट का भी जिक्र और उससे निपटने के उपायों की ओर भी उन्होंने इंगित किया है। वे स्पिक मैके आंदोलन के प्रदेश के मुखिया होने के नाते आंदोलन से प्रदेशभर में जोड़े युवाओं का जिक्र करना नहीं भूले। उन्होंने ऐसा करके कला को सहेजने, संवारने और उसे संवर्धित करने के लिए उनका धन्यवाद तो ज्ञापित किया ही, साथ अपने बाद दायित्व संभालने वाले पथिक को यह सूत्र भी पकड़ा दिया कि उन्होंने कला की विशाल अट्टालिका बनाने के लिए मजबूत नींव और आधार तैयार कर दिया है। अब वे इस आधार को सुंदर आकार देते हुए ऐसे कंगूरें तैयार करें, जिनसे कला की आभा से समूचा मानव जगत आलोकित होकर वास्तविक विकास और आनंद को पाने की राह खोज सके। 

जमनानी और उनका आदर्श

कृति के साथ यदि लेखक के व्यक्तित्व की चर्चा न की जाए तो बात अधूरी ही रह जाएगी। अशोक जमनानी उन चंद साहित्यकारों मेें से हैं, जो जिस याथार्थ और आदर्श को साहित्य के माध्यम से लिखते हैं, वे उसे जीते भी हैं। वर्तमान के नैतिक मूल्यों के गिरावट के इस दौर में इस प्रकार के लेखक, इस प्रकार के व्यक्ति विरले ही हैं। उनका यही व्यक्तित्व ही उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग पांत में खड़ा करता है। संभवतः इसीलिए उनके लेखन का प्रभाव सीधे लोगों के हृदयों तक उतरता चला जाता है।  

कुल मिलाकर, उनकी नवीन कृति पाठकों के मुखमंडल से लेकर अंतस को उसी प्रकार आनंद, शीतलता और अह्लाद से सराबोर कर देती है, जैसे नर्मदा की लहरों के मोतियों जैसी छींटे सेठानीघाट की सीढ़ियों पर लोगों को आनंदित कर देती हैं। अंत में इतना ही कि डॉ किरण सेठ का कला के उत्थान के उद्देश्य से प्रारंभ स्पिक मैके नाम का यह आंदोलन अशोक जमनानी की कलम से मूर्ति रूप लेकर कला जगत और कलाकारों के लिए प्रकाशपुंज बन चुका है। यह बात इस कृति को पढ़ने के बाद ही जानी जा सकती है। जिस प्रकार नदी की लहरों को कोई गिन नहीं सकता, वे कहां से प्रारंभ होकर कहां समाप्त हो रही हैं, यह जानना असंभव है, उसी प्रकार इस कृति में कला और कलाकार की अनंत लहरें हैं, जिन्हें गिनना और उनके आनंद को शब्दों में समेट पाना भी असंभव सा ही लगता है।

मनोज सोनी एडिटर इन चीफ


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